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पर्यावरण और पर्यावरणसंबधित कानून-एक समाजषास्त्रीय अध्ययन

Author : डाॅ. पुरूषोत्तम रा. बांडे

Abstract :

पर्यावरण असंतुलन से पहले भी कई संकट आये किंतु आज का संकट बहुत ही विनाशकारी है। इसका प्रमुख कारण प्रकृत्ति दोहन की भावना है, जो आज के युग की मुख्य प्रवृत्ति बन चुकी है। औद्योगिकरण और जनसंख्या का नगरीय केंद्रीयकरण आज विकास के मलू संकेत है। विकास की राहको बंद नही किया जा सकता। हमें पर्यावरण की रक्षा का दायित्व और संस्कृति की जीवित तत्वों की मर्यादा को स्विकार कर विकास आरै विनाश दोनों को नियंत्रिंत कर सकते है। मानव आरै प्रकृति अथवा पर्यावरण का अटूट संबंध है। उसके संसाधन हमारे लिए जरूरी है। पर पृथ्वी की क्षमताएं सीमित है। और मानव की दाहे न और भोग की आकांक्षाएं असीमित है। उनको सीमा में बांधने की जरूरत है। पर्यावरण के प्रति भौतिक अथवा वैज्ञानिक दृष्टी काफी नही है। उसके प्रति सांस्कृतिक अभिगम भी जरूरी है। भारत विश्व का पहला ऐसा देश जिसने अपने संविधान में पर्यावरण सुरक्षा का प्रावधान रखा है। 05 जून 1972 के स्टाॅकहोम में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव पर्यावरण सम्मले न के बाद ही हमारे देश में पर्यावरण संबंधी कई अधिनियम पारित हुए । जैसे की वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम, 1972, जल प्रदूषण निवारण एंव नियंत्रण,1974, वन संरक्षण अधिनियम 1980, वायु प्रदूषण निवारण एंव नियत्रंण अधिनियम 1981 तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 आदि अधिनियम के साथ-साथ कई अन्य अधिनियम भी पारीत हुये है। इन विभिन्न अधिनियम के आधारपर वन्य जिवो की परिभाषाको निश्चित किया गया, वन्य जीवन समिति के कार्य, कर्तव्य एंव शक्तीको निर्धारण हुआ, विलुप्त होते वन्य जाती के शिकारपर प्रतिबंध लगाया गया, विलुप्त पडे /पौदे का संरक्षण को बढावा दिया, राष्ट्रीय उद्यानों व अभयारण्यो की स्थापना को महत्व दिया गया, केंद्रीय चिडीयाघर का प्रावधान किया गया, व्यवसायिक दृष्टीसे कुछ वन्य जाती का परवाना देने का प्रावधान किया गया, अधिनियम का उल्लंघन करने पर जुर्माने व सजा का प्रावधान किया गया। पर्यावरण का पूर्णरूप से संरक्षण करणे हेतू विभिन्न कानुनव्दारा प्रयास किये गये है। इसमे कुछ कानुन काॅफी असरदार रहे, तो कुछ कानुन में कमियाॅ होने के कारण केवल कागजपर ही बने रहे।

Keywords :

पर्यावरण, पर्यावरण प्रदूषण, पर्यावरण संरक्षण, संवैधानिक प्रावधान/कानून