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भारतीय-परम्परा में धर्म की अवधारणा का दार्शनिक अवलोकन

Author : रामानन्द कुलदीप

Abstract :

भारतीय चिंतन परम्परा में ‘धर्म’ महत्वपूर्ण अवधारणा के रूप में प्रयुक्त हुआ है। पाश्चात्य ‘रीलिजन’ (Religion) के विचार से भिन्न ‘धर्म’ शब्द ‘ऋत’ की अवधारणा के विकास के परिणाम स्वरूप सामने आया। वेदों से लेकर धर्मशास्त्रों पक धर्म अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ। यथाः धर्म को कर्तव्य, धार्मिक विधि, नियम, आचरण, व्यवस्था, गुण आदि कई अर्थों में प्रयुक्त किया गया। भारतीय चिंतन परम्परा में ‘धर्म’ की व्याख्या के निमित्त विपुल साहित्य उपलब्ध है। मुख्यतः ‘धर्म’ कर्त्तव्य का पर्याय माना गया है। चूंकि प्राचीन भारतीय समाज चार वर्णो व आश्रमों में विभक्त था इसलिए प्रत्येक वर्ण व आश्रम के विभिन्न धर्मों (कर्त्तव्यों) का विस्तार से वर्णन किया गया है।
वैदिक-साहित्य, स्मृति-साहित्य व धर्मसूत्रों में समाज की व्यवस्था व उन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्यों का वर्णन है। चार पुरुषार्थों में ‘मोक्ष’ की प्राप्ति का मुख्य साधन ‘धर्म’ ही है। धर्मों के पालन पर इतना अधिक जोर दिया गया कि गीता में ‘स्वधर्म’ का पालन श्रेष्ठ और परधर्म भयावह माना गया है। ‘धर्म’ की वृद्धि सभी प्राणियों के लिए हितकारी मानी गई है। ‘धर्म’ समाज, संस्कृति और लोकजीवन के सन्तुलन का आधार है।

Keywords :

धर्म, कर्तव्य, ऋत, पुरुषार्थ, लोक कल्याण, आचार।