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अंतरजातीय विवाहित महिलाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन

Author : डॉ. राजेश कुमार मीणा

Abstract :

वैदिक युग मे यद्यपि जाति व्यवस्था नहीं थी सामाजिक संस्तरण वर्ण व्यवस्था पर आधारित था विवाह सम्बन्धों में अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों द्वारा सामाजिक सम्बन्ध स्थापित किये जाते थें शूद्र तथा अस्पृथ्यों से खानपान तथा विवाह सम्बन्ध नहीं रखें जाते थे प्राचीन समय में अनुलोम विवाह समाज द्वारा मान्य था लेकिन प्रतिलोम विवाह के प्रति सामाजिक स्वीकृति नकारात्मक रही थी उनसे उत्पन्न सन्तानों की स्थिति भी सम्मान जनक नहीं रही वर्तमान समय में अन्तर्विवाह के स्थान पर अन्तरजातीय विवाह करने की प्रवृत्ति विकसित होती जा रही है भारत में 1949 के हिन्दू वैधता अधिनियम के बनने से अनुलोम और प्रतिलोम दोनो ही प्रकार के विवाहों को वैध मान लिया गया था लेकिन देश के विभन्न हिस्सों में अन्तरजातीय विवाह करने वाले युग्मां पर समाज के सदस्यों द्वारा अत्याचार, प्रताड़ित करने एवं जाति से बहिष्कार करने की घटनायें होती रही हैं। आज भी अन्तरजातीय विवाह करने वाली स्त्री को विभिन्न प्रकार की समस्याओं एवं सामाजिक निन्दाओं का सामना करना पड़ता है अब विशेष विवाह अधिनियम 1954 में अन्तरजातीय विवाह को पूर्ण मान्यता एवं युग्मों को संरक्शण मिलने पर भी वर्तमान समय में भी अन्तरजातीय विवाह को समाज के सदस्यों द्वारा सहज स्वीकार नहीं करने की समस्या साधारणत देखने को मिलती है।
शोध पत्र में इन सभी प्रकार की समस्याओं जैसे अन्तरजातीय विवाहित महिलाओं की विवाह पश्चात प्रस्थिति एवं उत्पन्न समस्यों के अध्ययन को प्रस्तुत किया जा रहा है।

Keywords :

अन्तरजातीय विवाह, अन्तर्विवाह बहिर्विवाह, अनुलोम विवाह, प्रतिलोम विवाह।