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शास्त्रीय नृत्य में भाव एवं भंगिमा

Author : डाॅ. जितेश गढ़पायले

Abstract :

भारतीय नृत्यकला का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, शास्त्रों, वेद व पुराणों में भंगिमा के सिद्धान्तों की पुष्टि करता है। शास्त्रीय नृत्य के तत्वों में भंगिमा के तत्वों का व्यापक आयाम दृष्टिगोचर होता है जो कि शास्त्रीय नृत्य के आध्यात्म पक्ष को प्रबल और समृद्ध बनाता है। भंगिमा व भाव शास्त्रीय नृत्य कला में शाश्वत विचारों के साथ-साथ युगधर्मी विचारधारा का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। शास्त्रीय नृत्य में प्रयुक्त होने वाले नृत्त व नृत्त्य के समस्त पक्ष भाव एवं भंगिमा में धरोहर के रूप में विद्यमान है। परम्परागत शास्त्रीय नृत्य की अभिव्यक्ति में कलाकार द्वारा मुद्राओं बिम्ब, प्रतीक, रेखा, ताल-लय, गति, रस-भाव अभिनय, अंग, प्रत्यंग एवं उपांगों का सहारा लेकर भंगिमा को प्रदर्शित किया जाता है जिसका आलौकिक आनंद व सौन्दर्य की कलात्मक अनुभूति कलाकार व दर्शकगणों को होती है। यही अनुभूति ऐन्द्रिय संवेदना को तरंगित कर भाव-भंगिमा की समीक्षा करती है। फलतः शास्त्रीय नृत्य भंगिमा की अनिवार्य शर्तों से मुखरित होती है। शास्त्रीय नृत्य शरीर, आध्यात्म, ऐन्द्रिय संवेदनाओं बौद्धिक, ताल-लय, अभिनय, रस-भाव व बंदिशों के सौन्दर्य का सामंजस्य है जो दृश्य का श्रव्य की चरम पराकाष्ठा में अनेक नवीन प्रयोग को जन्म देने की एक सीढ़ी है। शास्त्रीय नृत्य में अभिनय एवं रस-सिद्धान्त कालान्तर से ही अपने आप में समृद्ध और सुसज्जीत है, जिसमें ‘रसो वै सः’ की सम्पूर्णता व सौन्दर्य को गहराई से विश्लेषण किया है। शास्त्रीय नृत्यों कि विशेषता ही रही है कि नृत्य अपने में अनेक सौन्दर्यमयी भंगिमाओं की अनुभूति के साथ सौन्दर्य रूपी भंगिमा के सांचे में ढल जाता है। भंगिमा को करण एवं अंगहारों के सौन्दर्यमयी प्रयोग से इसे सुसज्जित किया जाता है। शास्त्रीय नृत्त्यों में भंगिमा शारिरिक सुसंगठन, संतुलन, एकत्व, विविधता, चिरनवीनता, गति, लय, ध्वनि, अलंकार और औचित्य आदि में समाहित विशेष प्रकार का स्थानक या आकृति होती है। शास्त्रीय नृत्य मुख्य रूप से अनुकरण के तत्वों पर ही आधारित एक नृत्य शैली है। जो कि सौन्दर्यशास्त्र के मूल सिद्धान्तों में से एक हैं यह मनोभावों को प्रकट करते हुए सहृदय के मन में रसोत्पत्ति उत्पन्न करता ह।

Keywords :

भंगिमा अंगों की गति, भावों की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति, कथानक, आंगिक, वाचिक, आहार्य व सात्विक अभिनयों के लक्षण से ओत-प्रोत, गीतं, वाद्यम् तथा नृत्यंत्रयम्, लय-ताल से आबद्ध आंगिक अनुशासनात्मक।