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कजरी में कथक का भाव प्रणयन

Author : डाॅ. जितेश गढ़पायले

Abstract :

शास्त्रीय नृत्य का उद्देश्य भावनाओं के उत्कर्ष द्वारा रसानुभूति कराना है। स्वर, ताल, लय- मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते है इसलिये संगीत को श्रेष्ठ कलाओं में गिना जाता है। कजली गीतों में वर्षा ऋतु का विरह वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिकतर मिलता है। रसभरे लोकगीतों में कजरी का महत्वपूर्ण स्थान है। कजरी मूलतः लोकनारी का पावसकालीन आभरण है। पावस ने हर युग में चेतन, अचेतन सम्पूर्ण प्राणियों पर अपना असर छोड़ा है। यही कारण है कि इसे अनन्त काल से साहित्य और संगीत में महत्वपूर्ण स्थान मिलता रहा है। पावस की महत्ता मात्र इसके सौन्दर्य को लेकर नहीं बल्कि उस लक्ष्य के लिए भी है जिससे खेतों प्राणी में हरियाली आती है, धरती पर अन्न पैदा होता है और उसी अन्त से प्राणली मात्र का भरण-पोषण होता है। मल्हार वर्षा के मेघों को देखकर किसान प्रसन्नता से झूम उठते हैं और वर्षा की प्रतीक्षा करने लगते हैं। खेत-खेत में, गलियों-चैबारों में सुरीले कण्ठो में उतर आते हैं भारतीय परम्परा में नर्तन क्रिया के तीनों भेदों में से नाट्य को रसाश्रित, नृत्त को ताल लय के आश्रित और नृत्य को भावाश्रित माना गया है। कजरी एक विशेष प्रकार की गीत शैली है जो अपनी प्रकृति से भाव प्रवण तथा सरस है। इसलिए उसे नृत्य का आधार बनाया गया है। जिसमें अभिव्यक्ति की कैशिकी और सात्वत्ति वृत्ति दृष्टिगोचर होती है। कजरी में हिन्दी साहित्य के भक्ति काव्य और रीति को एक साथ घुलता मिलता देख सकते हैं। श्रृंगार के साथ ही करूण व शांत रस का भी सुन्दर परिपाक इनमें हुआ है और इन्हीं विशेषताओं के कारण ये कथक नृत्य में प्रमुख आधार के रूप में विकसित हुई है। कजरी के गीतों में भाव प्रदर्शन अधिक सहज स्वाभाविक और सात्विक अभिनय प्रधान होगी जो शास्त्रीय शब्दावली में लोकधर्मी तत्व की प्रधानता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। शब्द भेद अभिधा लक्षणा और व्यंजना के आधार पर भी कजरी अपने आप में समृद्ध है।

Keywords :

रस के अनुकूल भाव प्रणयन