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सामाजिक विकास की द्वन्द्वात्मकता

Author : प्रो. एन.एल. मिश्र

Abstract :

सतत विकास, विकास की परिणामी दशा के गर्भ से उपजा एक विषय है और आज यह बहस का केन्द्रीय तत्व है अन्यथा इसे तो विकास की पूर्ववर्ती दशा के रूप में होना चाहिए था। क्योंकि यह सभी को ज्ञात है कि विकास मानव के लिए होना चाहिए जो विश्वसनीय हो, वैद्य हो, वहनीय हो और संधृत हो। कभी विकास आध्यात्मिक विचारधारा के इधर-उधर घूमा तो कभी भौतिक विचारधारा के। कभी यह, अर्थ केन्द्रित रहा तो कभी श्रम-केन्द्रित। आज जब हम 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं तो विकास सूचना-प्रौद्योगिकी के अगल-बगल घूम रहा है। इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि विकास किसी निश्चित नियम या दशा का नाम नहीं है और न तो यह किसी निश्चित प्रारूप का अनुसरण करता है। विकास के सन्दर्भ में जो बात सच है वह यह है कि इसे मानव के लिए होना ही पड़ेगा नहीं तो यह सतत विकास, पर्यावरण-सन्तुलन, जैसे न जाने कितने सम्प्रत्ययों को बहस करने के लिए पैदा कर देगा और हम विकास को शंका की दृष्टि से देखते ही रह जायेंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में हम सामाजिक विकास की द्वन्द्वात्मकता को समझना चाहते हैं, जो विकास का महत्वपूर्ण अंग भी है और सतत विकास के लिए नींव भी।

Keywords :

द्वन्द्वात्मकता, संधृत, सतत, भूमण्डलीकरण, वर्ग-संघर्ष